यूं तो होली की पहचान रंग-गुलाल से अलंकृत परिवेश, भांग मे सराबोर पिस्ते-बादाम की “ठंडई” या फिर बरसती हुयी पिचकारियों से होती है… परन्तु इन सब के बीच रंगों से आच्छादित चेहरों के बिना इस त्यौहार की परिभाषा को अंतिम स्वरुप देना हमारी अवहेलना के बजाय हमारी अनभिज्ञता ही मानी जाएगी । चेहरे और कपड़ों पर लगे हुए ये रंग कहने को तो हमे रंगीन करके हमे हमारे वास्तविक छवि से दूर कर देते हैं परन्तु सही मायने में कहा जाये तो यह हमारी भिन्नताओं के ऊपर पर्दा कर देते हैं । रंगरूप और स्वरुप के बंधनों से मुक्त कर देते हैं हमे ! अनेक रंगों की परत चढ़ा कर हमे एक रंग में ढाल देते हैं ।

रंग हमारी आभा को एकाकृत करने के साथ-साथ कई बार हमारे अन्तःमन को प्रतिबिंबित करने का साधन भी बन जाता हैं । कुछ इस तरह की यह हमारे भौतिक आवरण की सीमाओं को लाँघकर हमारे व्यक्तित्व से जुड़ जाता है । हमारे चेहरे पर वार्षिक परीक्षाफल की भाँति उद्घोषित हो जाता है ! न चाहते हुए भी हमारी भावनाओं को व्यक्त कर देता है । कहीं कई रंगों के साथ घुलकर यह चेहरे पर गहरा हो जाता है….उल्लास को परिलक्षित करता हुआ और खुले मन का द्योतक बन जाता है तो कहीं अकेले ही किसी के गालों कर इठलाता हुआ त्यौहार की प्रतिष्ठा को भाव-भीनी सहमति देता प्रतीत होता है । कहीं यही रंग किसी के माथे का तिलक बनकर आशीष का अनवरत श्रोत बन जाता है तो कहीं अनचाहे ही किसी के मुख पर आभामंडित होकर उसके कोप का उद्गम भी। अगर यह रंग कहीं पर न हो, तो भी अलग कहानी बयां कर जाता है । यह कभी व्यक्तिविशेष की निराशा या मजबूरी को कुछ शब्द देता है और कभी उसकी त्यौहार मे अरुचि को पहचान देता है । रंगो के द्वारा की गयी इस विवेचना से ही आहत होकर कई लोग इसे अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ देते हैं । इनमे से कुछ लोग तो रंग न खेल कर अपनी प्रतिष्ठा के आखेटकों को करारा जवाब देते मालूम पड़ते हैं तो कुछ खेलने के बाद रंग छुड़ाने को पानीपत का युद्ध समझ अपनी फतह कायम कर अभिभूत होते हैं । कुछ लोग तो रंगों के इस आशय को इस तरह आत्मार्पित कर लेते हैं की उनके लिए होली, दुसरों को ज्यादा से ज्यादा रंग लगाकर अपने ओहदे को श्रेष्ठ साबित करने का वार्षिक अवसर मात्र बन जाता है । किन्तु होली के पर्व को मात्र रंगों की विवेचना से ही चित्रित करें तो इसके विस्तृत स्वरुप के साथ बेमानी होगी । यह लोगों को भी दूसरों के चरित्र का आलेखन करने का भी अवसर प्रदान करती है । इस आलेखन का पैमाना कभी होली खेलने का तरीका, कभी होली खेलने का वक़्त, कभी होली के बाद नहीं छूटते हुए रंग, और तो और कभी कभार स्वयं होली खेलना भी हो जाता है !
मुख्य धारा से अलग विचार रखने वाले ऐसे लोग तर्कसंगत भले ही न हों परन्तु अपनी तरजीह के पहरेदार अवश्य होते हैं । ये लोग होली खेलने के तरीके और वक़्त को एक निजी संवैधानिक प्रारूप का हिस्सा मात्र मानते हैं और उसका उल्लंघन करने वाले को असभ्य । नही छूट पाने वाले रंग को ये हार का प्रतीक मानते हैं । ऐसे लोगों की सूचि के नेता तो वो लोग हैं जो होली खेलने को ही वक़्त की बर्बादी मानते हैं। इनके हिसाब से होली तो कोई काम ही न हुआ।
क्यों कोई व्यर्थ में रंग खेलता है ? क्यों कोई अपने चेहरे को रंगता है ? किसे पड़ी है अपनी प्रतिष्ठा गवाने की ?

इन प्रश्नों का जवाब न तो आजतक कोई होली खेलने वाला दे पाया है, और न ही किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति ने समझने की कोशिश की है । खेलने वालों ने बस इस खेल को प्रतिष्ठित कर दिया है और प्रतिष्ठित लोगों ने इससे बचते रहने को अपना खेल समझ लिया है । खेलने वाला अपने रंगीन मिज़ाज़ से खुश है और
न खेलने वाला अपने जीत के एहसास से ।